रामप्रसाद बिस्मिल | रामप्रसाद बिस्मिल की जीवनी

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महान क्रांतिकारियों ने भाग लिया था। भारत मां के वीर सपूतों का जब-जब जिक्र होगा, उन सब में एक नाम जरूर आता है और वो नाम है रामप्रसाद बिस्मिल का। रामप्रसाद बिस्मिल जी एक महान क्रन्तिकारी ही नहीं थे, बल्कि वो उच्च कोटि के बहुभाषाविद्, कवि, अनुवादक, शायर और साहित्यकार भी थे।

रामप्रसाद बिस्मिल जी ने अपनी बहादुरी और अपनी सूझ-बूझ से अंग्रेजी हुकुमत की नींदे उड़ा दी और भारत की आज़ादी के लिये मात्र 30 साल की उम्र में अपने प्राणों की आहुति तक दे दी। रामप्रसाद बिस्मिल, बिस्मिल उपनाम के अतिरिक्त वे राम और अज्ञात के नाम से भी अनेकों लेख व कवितायें लिखते थे।

रामप्रसाद बिस्मिल जी की प्रसिद्ध रचना है ‘सरफरोशी की तमन्ना..अब हमारे दिल में है…’ रामप्रसाद बिस्मिल की ये रचना गाते हुए न जाने कितने क्रांतिकारी देश की आजादी के लिए फाँसी के तख्ते पर हंसते-हंसते झूल गये। बिस्मिल ने ‘काकोरी कांड’ और ‘मैनपुरी कांड’ को अंजाम देकर अंग्रेजी साम्राज्य को हिला कर रख दिया था।

रामप्रसाद बिस्मिल ने अपने क्रांतिकारी जीवन के लगभग 11 वर्षों में कई पुस्तकें लिखीं और उन पुस्तकों को स्वयं ही प्रकाशित किया। रामप्रसाद बिस्मिल के जीवन काल में प्रकाशित हुई लगभग सभी पुस्तकों को ब्रिटिश सरकार ने ज़ब्त कर लिया था।

पूरा नाम:- रामप्रसाद बिस्मिल

जन्म:- 11 जून, 1897

जन्म भूमि:- शाहजहाँपुर, उत्तर प्रदेश

मृत्यु:-  19 दिसंबर, 1927

मृत्यु स्थान:- गोरखपुर (जेल में)

अभिभावक:- पंडित मुरलीधर और श्रीमती मूलमती

नागरिकता:- भारतीय

प्रसिद्धि:- स्वतंत्रता सेनानी, कवि, अनुवादक, बहुभाषाविद

धर्म:- हिन्दू

विशेष योगदान:-  ब्रिटिश साम्राज्य को दहला देने वाले काकोरी काण्ड को रामप्रसाद बिस्मिल ने ही अंजाम दिया था।

अन्य जानकारी:-  रामप्रसाद ‘बिस्मिल के लिखे ‘सरफ़रोशी की तमन्ना’ जैसे अमर गीत ने हर भारतीय के दिल में जगह बनाई है।

★ रामप्रसाद बिस्मिल का प्रारंभिक जीवन

रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म 11 जून 1897 को शाहजहाँपुर जिले (उत्तरप्रदेश) में हुआ था। रामप्रसाद बिस्मिल जी के पिता का नाम मुरलीधर तथा माताजी का नाम मूलमती था।  जब रामप्रसाद जी 7 साल के हुए तब उनके पिता पंडित मुरलीधर जी ने उन्हें घर पर ही हिन्दी अक्षरों का ज्ञान कराने लगे। उस समय उर्दू भाषा का भी बोलबाला था, इसलिए हिन्दी भाषा की शिक्षा के साथ-साथ बच्चों को उर्दू भाषा को पढ़ने के लिए एक मौलवी साहब के पास भेजा जाता था।

रामप्रसाद जी के पिताजी उनके शिक्षा पर विशेष ध्यान देते थे, रामप्रसाद जी को पढ़ाई के मामले में जरा भी लापरवाही करने पर मार भी पड़ती थी। 8वीं कक्षा तक वो हमेशा अपने कक्षा में प्रथम स्थान पर आते थे, लेकिन कुसंगति के कारण उर्दू मिडिल परीक्षा में रामप्रसाद लगातार 2 साल अनुत्तीर्ण हो गए। उनकी की इस अवनति से परिवार के सभी लोगों को बहुत दु:ख हुआ और दो बार एक ही परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने पर रामप्रसाद जी का मन भी उर्दू की पढ़ाई से उठ गया।

कुछ समय बाद रामप्रसाद जी ने अंग्रेज़ी पढ़ने की इच्छा व्यक्त की। उनके पिता पंडित मुरलीधर जी अंग्रेज़ी पढ़ाने के पक्ष में नहीं थे पर रामप्रसाद की मां के कहने पर उनके पिताजी मान गए। नौवीं कक्षा में जाने के बाद राम प्रसाद आर्य समाज के सम्पर्क में आये और उसके बाद उनके जीवन की दिशा ही बदल गई। आर्य समाज में वह स्वामी सोमदेव के संपर्क में आये। जब रामप्रसाद बिस्मिल 18 वर्ष के थे तब स्वतंत्रता सेनानी भाई परमानन्द को ब्रिटिश सरकार ने ‘ग़दर षड्यंत्र’ में शामिल होने के लिए फांसी की सजा सुनाई (जो कुछ समय बाद में आजीवन कारावास में तब्दील कर दी गयी और फिर वर्ष 1920 में उन्हें रिहा भी कर दिया गया)।

रामप्रसाद बिस्मिल यह खबर पढ़ बहुत विचलित हुए और रामप्रसाद बिस्मिल ने कुछ समय बाद ‘मेरा जन्म’ नाम के शीर्षक से एक कविता लिखी और उन्होंने उस कविता को स्वामी सोमदेव को दिखाया। रामप्रसाद के द्वारा लिखी इस कविता में देश को अंग्रेजी हुकुमत से मुक्ति दिलाने की प्रतिबद्धिता दिखाई दी।

इसके कुछ समय बाद ही रामप्रसाद बिस्मिल ने अपनी पढ़ाई छोड़ दी और वर्ष 1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन के दौरान कांग्रेस के नरम दल के विरोध के बावजूद रामप्रसाद बिस्मिल ने लोकमान्य बालगंगाधर तिलक जी की पूरे लखनऊ शहर में शोभायात्रा निकाली।
लखनऊ के इसी अधिवेशन के दौरान रामप्रसाद की मुलाकात केशव बलिराम हेडगेवार, सोमदेव शर्मा व मुकुन्दीलाल आदि से हुआ। इस अधिवेशन के बाद रामप्रसाद अपने कुछ साथियों की मदद से ‘अमेरिका की स्वतंत्रता का इतिहास’ नामक एक पुस्तक को प्रकाशित की, इस पुस्तक को प्रकाशित होते ही उत्तरप्रदेश सरकार ने इसे प्रतिबंधित कर दिया।

★ मैनपुरी षड्यंत्र

कुछ समय पश्चात रामप्रसाद बिस्मिल ने अंग्रेजी साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए तथा देश को आज़ाद कराने के लिए ‘मातृदेवी’ नामक एक क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की। इस क्रांतिकारी संगठन की स्थापना के लिए रामप्रसाद बिस्मिल ने औरैया के पंडित गेंदा लाल दीक्षित की मदद ली। स्वामी सोमदेव चाहते थे कि इस क्रांतिकारी संगठन की स्थापना में रामप्रसाद की मदद कोई अनुभवी व्यक्ति करे, इस कारण स्वामी सोमदेव ने रामप्रसाद बिस्मिल का परिचय पंडित गेंदा लाल से करवाया।

रामप्रसाद बिस्मिल की तरह पंडित गेंदा लाल जी ने भी ‘शिवाजी समिति’ नामक एक क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की थी। उन दोनों ने मिलकर मैनपुरी, इटावा, आगरा और शाहजहाँपुर जिलों के कई युवकों को देश सेवा के लिए संगठित किया। जनवरी 1918 में रामप्रसाद बिस्मिल जी ने ‘देशवासियों के नाम सन्देश’ नामक एक पैम्फलेट प्रकाशित किया और उन्होंने अपनी कविता ‘मैनपुरी की प्रतिज्ञा’ के साथ-साथ इस पैम्फलेट का भी वितरण करने लगे।

वर्ष 1918 में रामप्रसाद बिस्मिल अपने संगठन को और अधिक मजबूत करने के लिए तीन बार डकैती भी डाली। साल 1918 में कांग्रेस के दिल्ली अधिवेसन के दौरान पुलिस ने रामप्रसाद बिस्मिल और उनके द्वारा बनाए संगठन के अन्य सदस्यों को प्रतिबंधित साहित्य बेचने पर छापा डाला पर रामप्रसाद बिस्मिल वहां से भागने में सफल रहे।

पुलिस से मुठभेड़ के बाद उन्होंने यमुना में छलांग लगा दी और तैर कर आधुनिक ग्रेटर नॉएडा के घने जंगलों में चले गए। इन घने जंगलों में उन दिनों केवल बबूल के पेंड़ ही हुआ करते थे और इंसान कहीं दूर-दूर तक नहीं दीख रहा था।

उधर ब्रिटिश जज ने ‘मैनपुरी षड्यंत्र’ मुकदमे में फैसला सुनते हुए रामप्रसाद बिस्मिल और पंडित गेंदा लाल दीक्षित को भगोड़ा घोषित कर दिया।
रामप्रसाद जी ने ग्रेटर नॉएडा के एक छोटे से गाँव रामपुर जागीर में शरण ली और कई महीने यहाँ के निर्जन जंगलों में घूमते रहे। इसी दौरान रामप्रसाद बिस्मिल ने अपना क्रांतिकारी उपन्यास ‘बोल्शेविकों की करतूत’ लिखा और ‘यौगिक साधन’ का हिन्दी अनुवाद भी उन्होंने किया। इसके बाद रामप्रसाद बिस्मिल कुछ समय तक इधर-उधर भटकते रहे और जब फरवरी 1920 में सरकार ने ‘मैनपुरी षड्यंत्र’ के सभी कैदियों को रिहा कर दिया तब रामप्रसाद बिस्मिल जी भी शाहजहाँपुर वापस लौट आएं।

सितम्बर 1920 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में रामप्रसाद बिस्मिल शाहजहाँपुर काँग्रेस कमेटी के अधिकृत प्रतिनिधि के रूप में शामिल हुए। कलकत्ता अधिवेशन में रामप्रसाद बिस्मिल की मुलाकात लाला लाजपत राय से हुई, लाला लाजपतराय जी उनकी लिखी हुई पुस्तकों से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने रामप्रसाद बिस्मिल का परिचय कलकत्ता के कुछ प्रकाशकों से करा दिया।

“इन्हीं प्रकाशकों में से एक थे उमादत्त शर्मा। उमादत्त शर्मा ने ही आगे चलकर साल 1922 में राम प्रसाद बिस्मिल की एक पुस्तक कैथेराइन को छापी थी।”

वर्ष 1921 में रामप्रसाद बिस्मिल जी ने कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में भाग लिया और उन्होंने मौलाना हसरत मोहनी के साथ मिलकर ‘पूर्ण स्वराज’ का प्रस्ताव कांग्रेस के साधारण सभा में पारित करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
शाहजहाँपुर लौटकर रामप्रसाद बिस्मिल ने लोगों को गांधीजी के ‘असहयोग आन्दोलन’ में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। जब चौरी चौरा काण्ड के पश्चात गांधी जी ने असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया तो वर्ष 1922 के गया अधिवेशन में रामप्रसाद बिस्मिल व उनके साथियों के विरोध स्वरुप कांग्रेस में फिर दो विचार धारायें बन गयीं – एक उदारवादी और दूसरा विद्रोही

★ H.R.A (हिंदुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन) का गठन

सितम्बर 1923 में हुए दिल्ली के विशेष कांग्रेस अधिवेशन में असंतुष्ट नवयुवकों ने एक क्रांतिकारी पार्टी बनाने का निर्णय किया। सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी लाला हरदयाल, जो उन दिनों विदेश में रहकर देश की आजादी का प्रयत्न कर रहे थे, उन्होंने पत्र लिखकर रामप्रसाद बिस्मिल को यदु गोपाल मुखर्जी व् शचींद्रनाथ सान्याल के साथ मिलकर नयी पार्टी का संविधान तैयार करने की सलाह दी थी।
3 अक्टूबर 1924 को हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की एक बैठक कानपुर में की गयी जिसमें रामप्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्रनाथ सान्याल व् योगेश चन्द्र चटर्जी आदि कई प्रमुख सदस्य शामिल हुए। पार्टी के लिए फण्ड एकत्र करने के लिए 25 दिसम्बर 1924 को बमरौली में डकैती डाली गयी।

★ काकोरी कांड

अपने पार्टी के कार्य हेतु धन की आवश्यकता पूर्ण करने के लिए रामप्रसाद बिस्मिल ने सरकारी खजाना लूटने की योजना बनायीं और उनके नेतृत्व में कुल 10 लोगों (जिनमें चंद्रशेखर आज़ाद, अशफाक उल्ला खाँ, राजेन्द्र लाहिड़ी, शचीन्द्रनाथ बख्शी, मन्मथनाथ गुप्त, मुकुन्दी लाल, केशव चक्रवर्ती, मुरारी शर्मा और बनवारी लाल आदि शामिल थे) ने लखनऊ के पास काकोरी स्टेशन पर ट्रेन रोककर 9 अगस्त 1925 को सरकारी खजाना लूट लिया। 26 सितम्बर 1925 को रामप्रसाद बिस्मिल के साथ पूरे देश में 40 से भी अधिक लोगों को ‘काकोरी डकैती’ मामले में गिरफ्तार कर लिया गया।

★ फांसी की सजा

इस काकोरी कांड के लिए रामप्रसाद बिस्मिल को अशफाक उल्ला खाँ, राजेन्द्र लाहिड़ी और रोशन सिंह के साथ मौत की सजा सुनाई गयी। उन्हें 19 दिसम्बर 1927 को गोरखपुर जेल में फांसी दे दी गयी।
जिस समय रामप्रसाद बिस्मिल को फांसी लगी उस समय जेल के बाहर हजारों लोग उनके अंतिम दर्शनों की प्रतीक्षा कर रहे थे। हज़ारों लोग रामप्रसाद बिस्मिल जी की शव यात्रा में सम्मिलित हुए और उनका अंतिम संस्कार वैदिक मंत्रों के साथ राप्ती के तट पर किया गया।

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