भारत को स्वतंत्र कराने और अंग्रेजी शासन को हमेशा के लिए समाप्त करने जैसे उद्देश्यों को पूरा करने के जिन क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों की आहुति तक दे दी, उन्हीं निर्भय स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे करतार सिंह सराभा। जिन्होंने मात्र 19 साल की आयु में भारत के सम्मान की खातिर अपना सर्वोच्च बलिदान दिया था।

करतार सिंह सराभा एक क्रांतिकारी और भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थे जिसने अमेरिका में रहकर भारतियों के हृदय के अंदर में क्रांति की ज्वाला जगाई थी।
नाम:- करतार सिंह सराभा
जन्म:- 24 मई, 1896
जन्म भूमि:- लुधियाना, पंजाब
मृत्यु :- 16 नवम्बर, 1915
मृत्यु कारण:- फाँसी
अभिभावक:- पिता- मंगल सिंह, माता- साहिब कौर
भाई/बहन:- धन्न कौर
नागरिकता:- भारतीय
प्रसिद्धि:- स्वतंत्रता सेनानी
शिक्षा:- हाई स्कूल
भाषा:- हिन्दी, अंग्रेज़ी, पंजाबी
विशेष योगदान:- करतार सिंह सराभा ने लायलपुर, लाहौर, फ़िरोजपुर एवं अमृतसर आदि छावनियों में घूम-घूमकर पंजाबी सैनिकों को संगठित किया और उन्हें विप्लव करने हेतु प्रेरित किया।
अन्य जानकारी :- परमानन्द जी ने करतार सिंह सराभा के जेल के जीवन का वर्णन करते हुए लिखा है, “सराभा को जेल की कोठरी में भी हथकड़ियों और बेड़ियों से युक्त रखा जाता था। क्योंकि उनसे सिपाही बहुत डरते थे।
★ जीवन परिचय
भारत को स्वतंत्र करवाने और अंग्रेजी शासन को समाप्त करने जैसे उद्देश्यों को पूरा करने के लिए जिन क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों की आहुति दी, उन क्रांतिकारियों में से एक थे करतार सिंह सराभा। जिन्होंने मात्र 19 वर्ष की आयु में भारत के सम्मान की खातिर अपने जीवन का सर्वोच्च बलिदान दिया था। करतार सिंह सराभा का जन्म 1896 में पंजाब के लुधियाना के सराभा ग्राम के एक जाट सिख परिवार में हुआ था। सराभा के पिता का नाम मंगल सिंह तथा माता का नाम साहिब कौर था। उनके पिता मंगल सिंह का सराभा के बचपन में ही निधन हो गया था। पिता की मृत्यु के पश्चात उनका और उनके बहन धन्न कौर का भी पालन-पोषण सराभा के दादा बदन सिंह ने किया।
★ सराभा की शिक्षा-दीक्षा
सराभा के तीन चाचा थे- बिशन सिंह, बख्शीश सिंह और वीर सिंह। उनके ये तीनों चाचा ऊंची सरकारी पदवियों पर काम कर रहे थे। कर्तार सिंह सराभा ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा पंजाब के लुधियाना के स्कूलों में ही हासिल की। कुछ समय बाद में उसे उड़ीसा अपने चाचा के पास जाना पड़ा। उड़ीसा उन दिनों बंगाल प्रांत का ही हिस्सा था, जो राजनीतिक रूप से अधिक सचेत था। वहां के माहौल में कर्तार सिंह सराभा ने स्कूली शिक्षा के साथ-साथ अन्य ज्ञानवर्धक किताबें भी पढ़ना शुरू किया। 10वीं कक्षा पास करने के बाद उसके परिवार ने उच्च शिक्षा (Higher Education) प्रदान करने के लिए सराभा को अमेरिका भेजने का निर्णय लिया।
1 जनवरी 1912 को सराभा अमेरिका पहुंचे। जब वो अमेरिका पहुंचे उस समय उसकी आयु मात्र 15 साल से कुछ महीने ही अधिक थी। इस आयु में करतार सिंह सराभा ने उड़ीसा के रावनशा कॉलेज से ग्यारहवीं की परीक्षा पास कर ली थी। सराभा के गांव में एक रुलिया सिंह था, जो 1908 में ही अमेरिका पहुंच गया था और अमेरिका में ठहराव के प्रारंभिक दिनों में करतार सिंह सराभा अपने गांव के उसी रुलिया सिंह के पास ही रह रहा था।
★ सराभा का क्रांतिकारी बनने का सफ़र
Berkeley University में तकरीबन 30 विद्यार्थी भारतीय थे, इन 30 विद्यार्थियों में से अधिकतर बंगाली और पंजाबी थे। साल 1913 में लाला हरदयाल जी इन विद्यार्थियों के संपर्क में आये। लाला हरदयाल जी और परमानंद जी ने इनके सामने भारत की ग़ुलामी पर एक जोशीला भाषण दिया। उनके इस भाषण ने करतार सिंह सराभा की सोच पर गहरा असर किया। उन्हीं के भाषण के बाद सराभा भारत की आज़ादी के बारे में विस्तार और गहराई से सोचने लगे।
★ सराभा को मिला लाला हरदयाल का साथ
साल 1911 में अपने कुछ सगे-सम्बन्धियों के साथ करतार सिंह सराभा अमेरिका चले गये। वे 1912 में सैन फ्रांसिस्को पहुँचे। अमेरिका पहुंचने पर वहां के एक अमेरिकन अधिकारी ने सराभा से पूछा की तुम यहाँ क्यों आये हो?
“सराभा ने उस अमेरिकन अधिकारी को उत्तर देते हुए कहा, मैं यहाँ उच्च शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से आया हूँ।”
किन्तु कर्तार सिंह सराभा उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं कर सके। करतार सिंह सराभा हवाई जहाज बनाना एवं उसे चलाना सीखना चाहते थे। अत: अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे एक कारखाने में भरती हो गये। इसी बीच उनका सम्पर्क लाला हरदयाल से हुआ, लाला हरदयाल उस समय अमेरिका में रहते थे, वे अमेरिका में रहते हुए भी भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रयत्नशील दिखे। लाला हरदयाल जी सैन फ्रांसिस्को में रहकर कई स्थानों का दौरा किया और भाषण दिये। कर्तार सिंह सराभा हमेशा लाला हरदयाल जी के साथ रहते थे और प्रत्येक कार्य में उन्हें सहयोग देते थे।
★ सराभा साहस की प्रतिमूर्ति
देश की स्वतंत्रता से सम्बन्धित किसी भी कार्य में सराभा हमेशा आगे रहते थे। 25 मार्च, 1913 ई. में ओरेगन प्रान्त (Oregon Province) में भारतीयों की एक बहुत बड़ी बैठक हुई, जिसके मुख्य वक्ता लाला हरदयाल जी थे। लाला हरदयाल जी ने सभा में भाषण देते हुए कहा था, “मुझे ऐसे नव युवकों की आवश्यकता है, जो भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति तक दे सकें।” इस बात को सुनते ही सबसे पहले करतार सिंह सराभा ने अपने आपको लाला हरदयाल जी के सामने प्रस्तुत किया। सभा में बैठे सभी लोगों के तालियों की गड़गड़ाहट के बीच लाला हरदयाल जी ने करतार सिंह सराभा को अपने गले से लगा लिया।
★ सराभा का सम्पादन कार्य
फिर वर्ष 1913 में एक अख़बार शुरू किया गया ‘ग़दर’, जिसके Must head पर लिखा होता था, ‘अंग्रेजी राज के दुश्मन’! इस अखबार को कई भाषाओं में इसे शुरू किया गया, गुरुमुखी संस्करण की जिम्मेदारी करतार सिंह सराभा पर आई। इस ‘गदर’ समाचार पत्र में देशभक्ति की कविताएं छपती थी और इसी समाचार पत्र के माध्यम से लोगों से अपनी धरती को बचाने की अपील की जाती थी।
वर्ष 1914 में जब ‘प्रथम विश्व युद्ध’ शुरू हुआ, तो अंग्रेज़ उस प्रथम विश्वयुद्ध में बुरी तरह फँस गये। अंग्रेजों को फंसे देख ऐसी स्थिति में ‘ग़दर पार्टी’ के कार्यकर्ताओं ने सोचा और योजना बनाई कि यदि इस समय भारत में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह हो जाये, तो भारत को अंग्रेजों से आज़ादी मिल सकती है।
★ क्रांतिकारियों के साथ चलती है क्रांति
पंजाब में विद्रोह चलाने के दौरान करतार सिंह सराभा ने क्रांतिकारियों के साथ नज़दीकी बढ़ानी शुरू की। भारत के गुलाम हालातों पर सराभा की पैनी नज़र स्पष्ट विचारों का निर्माण कर रही थी। करतार सिंह सराभा ने शचींद्रनाथ सान्याल, रासबिहारी बोस के साथ अपने विचार साझे किए और क्रांतिकारियों की एक सेना बनाने का सुझाव दिया। कुछ समय बाद में रासबिहारी बोस ने अपने आस-पास के माहौल को देखते हुए सराभा को लाहौर छोड़कर काबुल चले जाने की सलाह दी।
करतार सिंह सराभा ने काबुल जाने की तय कर ली लेकिन जब तक वो काबुल पहुंचते तब तक वज़ीराबाद के रास्तों में ही उन्होंने सोचा कि भागने से बेहतर है मैं फांसी के तख़्ते पर चढ़ जाऊं। अपने इसी सोच को अंजाम देते हुए करतार सिंह सराभा ने स्वयं को पुलिस के हवाले कर दिया। आत्मसमर्पण के बाद सराभा पर कई मुकदमें चले। जिसके परिणाम स्वरूप जज ने सराभा को फांसी की सज़ा सुनाई। और उस महान क्रांतिकारी को 16 नवंबर1915 को मात्र 19 साल की आयु में फांसी की सजा दे दी गयी।
★ करतार सिंह सराभा का अंतिम संदेश
सराभा ने फांसी के फंदों पर चढ़ने से पूर्व कहा था कि ‘अगर पुर्नजन्म का कोई सिद्धांत है तो मैं भगवान से यही प्रार्थना करूंगा कि जब तक मेरा भारत देश आज़ाद न हो मैं भारत की स्वतंत्रता में हर बार अपना जीवन न्यौछावर करता रहूं’। 16 नवंबर 1915 को करतार सिंह ने मात्र 19 वर्ष की आयु में हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया।